विवाह के बाद कलकत्ते से बिहार आना किसी विस्थापन की तरह ही था। लंबे समय तक पटना का परिवेश मेरे लिए अपरिचित ही रहा। सदी के आरंभिक वर्षों में जब पटना के साहित्यिक सांस्कृतिक माहौल से परिचित होने लगी तो एक चेहरा मंचों पर अक्सर दिखता माथे पर गोल बड़ी सी बिंदी और चेहरे पर गहरी आश्वस्ति के साथ आत्मीयता ली हुई एक स्निग्ध मुस्कान। पता चला कि ये हिंदी की प्रतिष्ठित कथा लेखिका उषा किरण खान हैं।
उन्हें देखते हुए लगता कि एक विशाल वटवृक्ष अपनी शाखाएं फैलाए सम्मुख हो। उस वटवृक्ष ने कब अपनी छांव में समेट लिया और औपचारिक-सा अभिवादन आत्मीय परिचय में बदल गया, पता ही नहीं चला। कथा लेखिका से इतर उषा दी के व्यक्तित्व के निजी पहलुओं से साक्षात हुआ। सक्रियता, नेतृत्व क्षमता, प्रबंधन कौशल के साथ उनमें एक नटखट किशोरी शाश्वत रूप से विद्यमान रही और साथ ही उपस्थित रहा अपने में सबको समेट लेने वाला एक सार्वभौमिक मातृत्व भाव। मेरे लिए उनका साहचर्य संजीवनी के समान था। मैं अपनी वह उर्वर जमीन छोड़कर आई थी जहां अब मेरी शाखाएं फैलने को उन्मुख थीं। यहां मेरी कर्मस्थली भगवानपुर, मुख्यालय मुजफ्फरपुर और आवास पटना था इन सबके बीच मैं बिखर गई थी। लंबे समय तक पटना का साहित्यजगत मेरे लिए अपरिचित रहा। उषा दी ने मेरे पांवों के नीचे जमीन दी। उनके पास बैठकर पटना के पुराने दिनों के अनुभवों को सुनते हुए मैं समृद्ध होती। जब भी कोई उलझन हो तो उनके पास दौड़ी चली आती। उनके गहन जीवन अनुभवों से निकले उनके सुझाव सार्थक दिशा देते। आयाम के पेज पर जब वे हमें सुमुखियों कहकर संबोधित करतीं तो हम सचमुच अभिमान से भर उठतीं। समय समय पर वे हमें लगातार पढ़ने के लिए प्रेरित करतीं। वे तो पूर्णकाम होकर गईं अपने पारिवारिक सामाजिक दायित्व निभाकर हालांकि रचनाशीलता की यात्रा कभी पूरी नहीं होती – अभी भी वे दो उपन्यासों पर काम कर रही थीं। पर जीवन में इतना कुछ हासिल करके जाना पूर्णकाम होना ही है। हम जो पीछे हैं, वंचित रह गए उनके स्नेह, सर्जन और उनके विराट अनुभव लोक से- हमारी यह क्षति तो अपूरणीय ही रहेगी। पटना के सांस्कृतिक जगत काविराट वटवृक्ष ढ़ह गया। सूना हो गया यहां का साहित्य परिसर। मेरे लिए उनका जाना मानो दुबारा मायके से बिछड़ जाने की तरह है। अश्रुपूरित नमन उन्हें।
उषा दी के व्यक्तित्व के सार को मैं सिर्फ तीन शब्दों में विश्लेषित करना चाहूंगी जीवंतता, सहजता और आत्मीयता। यह उनकी जीवंतता ही है जो उनकी सर्जनात्मकता को धार देती रही। जीवन से भरा हुआ एक ऐसा व्यक्तित्व जिसमें नदी का सा प्रवाह था, अनवरत क्रियाशील-सक्रिय ! उनके व्यक्तित्व की दूसरी बड़ी विशिष्टता थी उनकी सहजता। अपने लेखन और व्यस्त सामाजिक जीवन के बावजूद वे हर छोटे और बड़े के लिए हर समय उपलब्ध थीं। उन्हें कभी हमने अनुपलब्ध नहीं पाया। महादेवी की तरह उनका घर पटना के लिए साहित्यकार संसद की तरह था। उनके पास अनुभवों की विशाल थाती थी, अपने समय के हर साहित्यकार, संस्कृतिकर्मी और यहां तक कि राजनीतिज्ञ के बारे में वे बहुत कुछ ऐसा जानती थीं जिसे जानना हमें आश्चर्यचकित कर देता। और उनकी आत्मीयता तो सबको अपने में समेट लेती थी। यूं ही इतनी लोकप्रियता और सर्वप्रिय नहीं थीं!
उषा किरण खान
उषा किरण खान के साहित्यिक व्यक्तित्व में कई धाराएं समाहित थीं। गांधीवादी विचार अपने गांधीवादी पिता से उन्हें विरासत के रूप में मिला। नागार्जुन का अभिभावकत्व और स्नेह तले उनमें समाजवाद की चेतना पनपी। साहित्य की दृष्टि से वे रेणु की शैली की अनुगामिनी थीं। रेणु उनके प्रिय और प्रेरक रचनाकार थे, ऐसा उन्होंने कई बार स्वीकार किया भी था। राजेन्द्र यादव ने उनकी कहानियों पर टिप्पणी करते हुए एक बार लिखा था कि रेणु के बाद यह उषा किरण खान हैं जो ग्रामीण अंचल की कहानियां लेकर आईं। उषा किरण के उपन्यास अक्सर लॉन्ग शॉट से शुरू होते हैं खेत-खलिहान, फसल-अनाज, बोली – ठोली, नद-नाले सब पर एक नजर डालता हुआ कैमरा व्यक्ति विशेष पर आ टिकता है। इस प्रकार उनके पात्र परिवेश का हिस्सा बन जाते हैं वे अपनी परिवेश में सांस लेते, जीते और मरते हैं। यह परिवेश-सम्पृक्ति उन्हें रेणु की परम्परा में ला खड़ी करती है। बावजूद इसके वे रेणु से भिन्न हैं तो इन अर्थों में कि रेणु की रचनाओं में परिवेश हावी है कभी अनायास और कभी सायास । उषाकिरण खान किरण के यहां ये दोनों अपनी पारस्परिकता में उपस्थित हैं एक दूसरे में घुले मिले हुए इतने कि उन्हें विच्छिन्न करके देखना असंभव है।
उषा किरण खान ने अपने साक्षात्कारों में कई बार इंगित किया है कि स्त्री विमर्श सिर्फ बीस प्रतिशत स्त्रियों की बात करता है, बाकी की अस्सी प्रतिशत स्त्रियां उससे ओझल हैं। उषाकिरण खान के उपन्यास उन्हीं अस्सी प्रतिशत स्त्रियों की कथा लेकर उपस्थित होते हैं जो हिन्दी साहित्य जगत से लगभग अलक्षित ही रही हैं। ये वे स्त्रियां हैं जो खेत खलिहानों में काम करती हैं, जमींदारों के घर में टहल करती हैं, शहरों में मजदूरी या घरेलू काम करती हैं और साथ ही वे भी जो शिक्षा ग्रहण कर संघर्ष कर रही हैं और समाज में नया कुछ जोड़ रही हैं। यह वह समाज है जो मध्यवर्ग की नैतिकताओं और वर्जनाओं के घेरे से बाहर है। यहां अनावश्यक यौन शुचिता के बंधन नहीं हैं, न ही विवाह संस्था का घेरा यहां तंज है और न ही घर की दहलीज की परिधि ही इनकी सीमा है। जीवन यहां नदी की तरह कूल की सीमाओं में प्रवाहित होने को विवश नहीं है वह तो झरने की तरह अपनी गति से प्रवहमान है। पर स्त्री होने की नियति का अभिशाप इन्हें भी कहीं ना कहीं झेलना ही पड़ता है।
उषा किरण खान का लेखन स्त्री विमर्श का लेखन नहीं है कारण कि उनकी दृष्टि के केन्द्र में मात्र स्त्री ही नहीं है और न ही प्रतिरोध का वह मुखर स्वर है जो स्त्री विमर्श के लेखन की पहचान है। बावजूद इसके स्त्री वहां है उसी सहज रूप में जिस तरह वह जीवन में उपस्थित है। वे लेखिका के जीवनानुभवों के प्रतिबिम्ब के रूप में हैं। यहां जो स्त्री है उसकी उपस्थिति लहरों के नीचे बहने वाली अन्तःसलिला की तरह है, बिना किसी शोर के प्रवहमान, पर सतत रूप में उर्मियों को रूपाकार देती। अपनी सहज उपस्थिति में वे जीवन का हिस्सा हैं और उतनी ही अनिवार्य और जीवंत जैसे शरीर का कोई अंग। इस रूप में ये उपन्यास अपने समय और परिवेश के जीवंत दस्तावेज की तरह हैं।
उषा किरण खान के उपन्यासों के माध्यम से मिथिलांचल की स्त्रियों की कमिक गाथा लिखी जा सकती है। प्रतिवर्ष बाढ़ की विभीषिका झेलती और विस्थापित होती और पानी पर लकीर खींचती स्त्रियों की कथा ‘पानी पर लकीर’ में अंकित है जहां जलजा, भौलजा और सोनी के माध्यम से ग्रामीण जीवन में स्त्रियों की युवा पीढ़ी के जीवन में आ रहे बदलाव और उसके संघर्ष की कथा है। ‘फागुन के बाद’ में ग्रामीण जीवन के बदलावों को तो ‘रतनारे नयन में पटनदेवी के माध्यम से पटना के बसने की तथा बीसवीं सदी के अंत तक पटना के सामाजिक और राजनीतिक जीवन में आ रहे परिवर्तन को लेखिका ने बड़ी जीवंतता से अंकित किया है।
उनके उपन्यासों में स्त्री-पुरुष संबंधों के कई रूप सामने आते हैं। एक संबंध पुरानी पीढ़ी के रामधानी और उसकी पत्नी का है जहां दिन में आपस में हँसी के एक-दो बोल ही बहुत बड़ा रोमांस है। उसके बाद की पीढ़ी में थोड़ा खुलापन आता है। प्रेम और साहचर्य का बहुत सुंदर रूप सुखीराम और बनारसी में देखने को मिलता है। प्रणय प्रसंगों में लेखिका ने अद्भुत तन्मयता और माधुर्य भर दिया है। स्त्री-पुरुष की प्रेमकीड़ा में विद्यापति की सी तन्मयता और उनके मैत्रीपूर्ण संबंधों में कृष्ण का-सा सखत्व है स्त्री पुरुष के सखत्व का एक रूप सुखीराम और चम्पा में देखने को मिलता है। पूरब में कमाने गये सुखीराम की मुलाकात वहां की एक मजदूर स्त्री से होती है। दोनों युवा हैं, पर दोनों का संबंध सखत्व के उस धरातल पर टिका है जहां स्त्री और पुरुष का भेद मिट जाता है। श्रम के साहचर्य में रहने वाले स्त्री पुरुष के निश्छल संबंधों, हास-परिहास और ममत्व का जो चित्र लेखिका ने खींचा है, उसकी लम्बी समाज शास्त्रीय व्याख्या हो सकती है।
स्त्री लेखन में, बल्कि समकालीन लेखन में इतिहास को कथ्य बनाकर उपन्यास लेखन करने वाली अकेली लेखक के रूप में उषा किरण का नाम आता है। वे इतिहास की प्राध्यापक रही हैं और इसलिए उनके ऐतिहासिक उपन्यास गहन शोध पर आधारित हैं जिनमें सिर्फ कथा ही नहीं, उस समय के सामाजिक सांस्कृतिक परिवेश का प्रमाणिक परिचय मिलता है। ‘अगिनहिंडोला’, ‘सिरजनहार’ और ‘भामती’ उनके ऐतिहासिक उपन्यास हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि हैं।
स्त्री लेखन में उषाकिरण खान किरण के उपन्यास एक अलग लीक खींचते हैं। यहाँ विमर्श के मुहावरे नहीं हैं पर बहुत कुछ ऐसा है जिनके बिना स्त्री पर विमर्श सम्पूर्ण हो ही नहीं सकता। उषा किरण खान के उपन्यासों में उफनती नदी का आवेग नहीं है सतह के नीचे बहने वाली किसी प्रबल अंतर्धारा का गांभीर्य है। यहां जीवन का यथार्थ बिल्कुल अपने अनगढ़ रूप में है- अनावृत्त, आवरणविहीन, अपने वास्तविक रूप में! यहाँ प्रकृति का उन्मुक्त परिवेश है, उसकी गोद में पल रहे लोगों का वर्जनाहीन जीवन है, आपद-विपद और समस्याएँ हैं और उनसे जूझती, उसी में जीवन का रस खोजती जिन्दगी हैं। इन सबके बीच अपनी असहाय स्थिति से ठोकर खाती स्त्री है। उषा किरण खान की स्त्री पात्रों में विद्रोह की मुखरता नहीं है, पर संघर्ष की आंच है जिसमें धीमे-धीमे पककर वे निखरती हैं। भले ही इनकी आवाज बुलंद नहीं है, पर अपनी जिजीविषा और कर्मठता में ये अपनी उपस्थिति का भान कराती हैं। इनकी मुक्ति चेतना अंदर से प्रस्फुटित होती हुई व्यक्तित्व को समृद्ध करती हैं और उन्हें एक सबल रूप प्रदान करती हैं। जरूरी नहीं कि मुक्ति की चेतना विस्फोट की तरह व्यक्तित्व का हिस्सा बने या दामिनी की दमक के साथ प्रकट हो। अपने जमीनी रूप में वह समय के साथ पककर उद्भासित होने वाली चीज है। इस प्रक्रिया में व्यक्ति के साथ परिवार और परिवेश भी अपनी भूमिका निभाते हैं। इस रूप में देखें तो उषा किरण खान के यहां स्त्री विमर्श आकाश से टपकने वाली चीज नहीं वह जमीन से प्रस्फुटित होती है। उषा किरण खान के उपन्यास स्त्री के इसी क्रमिक विकास की गाथा लेकर आते हैं। वे अपने अंचल के जीवंत दस्तावेज की तरह हैं और इस रूप में साहित्यक और ऐतिहासिक ही नहीं, समाज-शास्त्रीय महत्व के भी अधिकारी हैं।
आलोचना जगत में कथा आलोचना के मानदंड बदलते रहे हैं। कभी कथा की निर्मिति में महत्वपूर्ण निभाने वाली घटनाओं का स्थान आगे चलकर चरित्र ने ले लिया। फिर कथालोक में लघुमानव का प्रवेश हुआ, द्वन्द्व की अभिव्यक्ति को प्रमुखता मिली। स्त्री विमर्श के समय में प्रतिरोध का स्वर कथालोचन का एकमात्र मानदंड बन गया है। लेकिन हर वैचारिक आग्रह से परे कथा यदि समाज का जीता जागता चित्र है तो इस दृष्टि से उषाकिरण के उपन्यास कथाजगत में महत्वपूर्ण स्थान के अधिकारी हैं।