स्त्री पर यौन हिंसा और न्यायालयों एवम समाज की पुरुषवादी दृष्टि पर ऐडवोकेट अरविंद जैन ने महत्वपूर्ण काम किये हैं. उनकी किताब ‘औरत होने की सजा’ हिन्दी में स्त्रीवादी न्याय सिद्धांत की पहली और महत्वपूर्ण किताब है. संपर्क : 9810201120
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सूरज निकलने से पहले ही वह ‘शूटिंग’ के लिए निकल पड़ता और जब लौटता तो सड़क के किनारे-किनारे बसी झोपडि़यों में से किसी बूढ़े आदमी के खाँसने की आवाज रह-रह कर सुनाई पड़ती।
गेंहुए रंग के ‘रफ एंड टफ’ चेहरे पर उसकी बड़ी-बड़ी आंखों में शायद कोई ‘टेलीलैंस’ फिट था और दिमाग में ‘माइक्रो फिल्म।’ चलता हुआ वह घने जंगल के अंधेरे में अकेले टहलते चीते के समान लगता था, जरा-सी आहट होने पर उसके कान खरगोश की तरह खड़े हो जाते और पलक झपकते ही वह सांप की तरह गायब हो जाता। बुलबुल, मैना या मोर की आवाज सुनते ही उसके चेहरे पर बिज्जू-सी चमक आ जाती। दिन में वह कबूतर-सा शांत मगर रात को रीछ-सा बेचैन नजर आता। बसन्त आता तो वह महीनों कमरे पर नहीं लौटता और रंग-बिरंगी तितलियों व फूलों की तलाश में भटकता रहता। आषाढ़ के दिनों में कमरे से बाहर ही नहीं निकलता और ढेरों किताबें दीमक की तरह चाट जाता। गर्मियों में छत पर सोता और देर गए तक चांद का पीछा करता रहता। सर्दियों में सारी रात साल भर से जमा रद्दी अखबार जलाकर आग सेंकता और सारा दिन कमरे में सोता रहता। ‘शूटिंग’ पर जाते हुए रास्ते में कहीं कोई नदी पड़ती तो कपड़े व झोला किसी पेड़ की खोह में रख देता और खुद घंटों मछली की तरह नदी में तैरता रहता। जमीन पर बने पांव के निशान देखते ही वह फौरन समझ जाता कि कौन-सा जानवर यहां से गुजरा है और निशानों के पीछे-पीछे तब तक चलता रहता, जब तक निशान दिखना बंद नहीं हो जाते।
कभी-कभी ‘शूटिंग’ से जल्दी निपट आता, तो लौटते वक्त वह पुराने किले के सामने कोर्ट-कैंटीन में जा बैठता। एक तो यहां खाना अच्छा मिलता, दूसरे कैंटीन रास्ते में ही पड़ती थी सो समय खराब नहीं होता। तीसरा कारण यह था कि कैंटीन के बाहर-भीतर, इधर-उधर घूमते बिलाव, बलुटनें और बिल्लियां देखना उसे अच्छा लगता था।वह जैसे ही कैंटीन के पास पहुंचता तो वहां आधे सफेद-आधे काले रंग के मोटे-ताजे विलावों के पीछे-पीछे दुबली-पतली बिल्लियां ओर छोटे-मोटे बलुटनें घूमते हुए दिखाई पड़ते। दरवाजे के दाई ओर पौधों की ओट में बैठे कुछ बिलाव और बिल्लियां नजर आतीं। एक बिलाव “मॉडर्न ब्रेड” खा रहा होता तो दूसरा पंजों में दबाकर हडृी पर बचा मांस नोच रह होता। बिल्लियाँ टुकुर-टुकुर बिलावों की तरफ देखती रहतीं। उसे लगता कि इनके हाथ हडृी नहीं लगी है। बिलाव हडृी चूस-चासकर फेंक देते तो बिल्लियाँ उन्हें चाटने लगतीं। दरवाजे के दूसरी तरफ थोड़ी ही दूरी पर एक छोटा सा पार्क था जिसमें कुछ बिलावों को घास पर लेटे देखकर उसे लगता जैसे धूप सेंक रहे हों। पार्क और दरवाजे के बीच के कमरे में टाइपिस्ट और कोर्ट स्टैम्प बेचने वालों की मेज- कुर्सियों के चारों ओर बिल्लियाँ घूमती रहती और बुलटनें कोने में दुबके बैठे रहते। खिड़की के नीचे कोई बिलाव सो रहा होता कोई घात लगाए बैठा होता। धीरे-धीरे चलती बिल्लियों को गौर से देखने के बाद चलता पेट से हैं। वह इतने ध्यान से इन्हें देखता रहता जैसे रिसर्च कर रहा हो। यह सब देखते- देखते वह बिलावों और बिल्लियों की रोचक व रहस्यमय दुनिया में खो जाता। उसे ध्यान ही नहीं रहता कि वह यहाँ लंच करने आया था- समय बचाने के लिए और इतना समय बिलावों व बिल्लियों के चक्कर में बरबाद कर दिया।
उसे ध्यान आता तो वह जल्दी-जल्दी अन्दर घुसता और एक जगह खड़ा होकर बैठने के लिए जगह ढूंढता, खाली जगह मिलती तो जाकर बैठ जाता और वेटर के आने का इंतजार करता लेकिन उसके दिमाग में बिलाव व बिल्लियाँ घूमते रहते। वह सोचता कि इन पर सोचने से क्या फायदा? पर……लंच करते हुए वह अक्सर देखता कि एक मेज पर बिलाव ‘कोल्ड कॉफी’ पी रहे हैं तो दूसरी मेज पर बिल्लियाँ चाय की चुस्कियाँ ले रही हैं। बिलावों के हाथ कभी-कभी “चीज सैंडविच” लग जाते तो कभी मटन हेमबर्गर। बलुटनें और बिल्लियाँ जूठी प्लेटें चाटकर भी खुश नज़र आते। जब कभी कोई बिलाव ऐसी प्लेटें बिल्लियों के लिए छोड़ देता तो बिल्लियाँ बड़े कृतज्ञ भाव से बिलाव की और निहारती और बिलाव बड़े गर्व से उन्हें देखता हुआ किसी और मेज की ओर बढ़ जाता। मोटे-ताजे बिलावों को वेटर ‘सरकारी बिलाव” कहते थे। वैसे किसी बिलाव को वेटर ‘प्रधान जी’ कहते और किसी को महामंत्री।’ वेटरों ने बिल्लियों के भी अलग-अलग नाम रख रखे थे जैसे किसी का बिजली तो किसी का शर्मिली।
एक दिन उसने वेटर को कहा, ‘‘भई, यह क्या है? देखो बिलाव और बिल्लियाँ इन बर्तनों में मुहँ मारते रहते हैं और इन्हीं बर्तनों में तुम….।’’ चुपचाप सुनता वेटर बीच में ही बोल पड़ा, ‘‘साहब! हम क्या कर सकते हैं? आप ही लोगों के पाले हुए हैं।’’ दूसरा वेटर भुनभुनाता हुआ बोला,‘‘ जनाब! आप लोगों के सहारे इनका पेट भर जाता हैं तो इसमें क्या बुरा है?’’
वह सुनता, सोचता झल्लाता और कोने में लगे जाले, छत पर उल्टे लटके चिमगादड़ और दीवार पर चिपकी छिपकालियाँ देखता रहता।
कभी-कभी लंच के बाद कैंटीन से निकलकर, सीढियाँ चढ़ता और एयरकंडीशंड बिल्डिंग के अंदर लायब्रेरी में “टाइम्स” या “न्यूज वीक” पढ़ने बैठ जाता। यहां भी बिलाव और बिल्लियां उसका पीछा नहीं छोड़ते। उस दिन तो वह यह देखकर बहुत देर हंसता रहता कि एक कोने में ढेर लगी ‘कांस्टीट्यूशन’ की मोटी-मोटी किताबों के बीच कोई बिलाव सो रहा है तो दूसरे कोने में कोई बिलाव इनकम टैक्स और कंपनी केसेस के ढेर में घुसा ऊंघ रहा है। कमरे में तीन तरफ ऊपर तक लगी किताबों की हर अलमारी के नीचे कोई बिलाव ध्यानमग्न बैठा होता तो कोई चुपचाप अपन पंजे चाट रहा होता। कोई अपनी पूंछ गोल किए छत की ओर घूरता रहता तो कोई पंजों से अपनी खोपड़ी खुजलाता हुआ नजर आता। बिल्लियां सोफों के नीचे रेस्ट कर रही होती हैं और बलुटनें बिल्लियों या बिलावों को ढूंढते हुए इधर-उधर परेशान से घूमते रहते। अलमारी में लगी किताबों के पीछे से जब कोई बिलाव गंभीर मुद्रा में निकलता हुआ दिखाई पड़ता तो उसे वह चिन्तन में डूबे किसी विद्वान प्रोफेसर-सा नजर आता। यह देखते-देखते उसकी नजरों के सामने बहुत-सी रिवाल्विंग चेयर और उन पर बैठे बिलाव चक्कर काटने लगते।
रास्ते में उसे याद आता कि जब वह छोटा था तो पिताजी की मृत्यु के बाद रसोई में रखा दूध अकसर बिलाव पी जाता और उसे बिना दूध पिए ही स्कूल जाना पड़ता था। मां ने बहुत उपाय किए, गांव के बड़े-बूढ़ों से पूछा, कई बार शहर भी गई लेकिन… कभी-कभी तो हर दूसरे-तीसरे दिन बिलाव सारा दूध पी जाता। हारकर मां ने छत के कुंडे से रस्सी बांधकर काफी ऊंचा छींका बनाया और दूध वहीं रखकर सोती। इसके बाद भी बिलाव आता रहा लेकिन दूध उसके हाथ नहीं लगता। एक रात बिलाव ने जाने कैसे छींके तक छलांग लगाई और दूध बिखेरकर अंधेरे में भाग गया। उस दिन के बाद बिलाव फिर कभी नहीं आया। उसे अब समझ आया था कि शायद यही कारण है कि वह अपने कमरे पर चाय बनाने के लिए डिब्बा बंद दूध इस्तेमाल करता है। थोड़े दिन बाद तो उसे ऐसा लगने लगा जैसे वह जहां कहीं भी जाता है कोई न कोई बिलाव या बिल्ली नजर आ ही जाती है। कबाड़ी बाजार से लेकर संसद तक कोई ऐसी जगह नहीं, जहां उसने बिलाव या बिल्ली न देखे हों। वह जब भी उन्हें देखता, पहचानने की कोशिश करता और बार-बार उसे लगता कि ये वही कोर्ट कैंटीन वाले बिलाव या बिल्लियां हैं। कभी-कभी उसे लगता जैसे इनका भी ‘प्रमोशन’ और ‘डिमोशन’ होता रहता है। तभी तो कोर्ट कैंटीन वाले बिलाव संसद कैंटीन में और संसद कैंटीन बाले बिलाव कोर्ट कैंटीन में दिखाई पड़ते हैं। कभी सोचता जैसे साइबेरिया से उड़कर पक्ष हर साल सर्दियों में भरतपुर आ जाते हैं, वैसे ही ये भी गर्मियों में कश्मीर, मसूरी या शिमला चले जाते होंगे। कभी उसके दिमाग में आता कि दूसरे देशों में जाने के लिए तो पासपोर्ट और वीसा बनवाने की जरूरत पड़ती है, तब वे कैसे जाते होंगे? वह घंटों तक उलझा रहता फिर यह सोचकर टाल देता कि हो सकता है कि किसी की टोकरी में छुपकर बैठ जाते हों और बिना पासपोर्ट और वीसा के दुनिया भर की सैर कर लेते हों ।
‘दि ग्रेट प्राइम मिनिस्टर्स कालोनी’ से गुजरते हुए उसने कई बार कुछ ‘काले-बिलाव’ देखे थे लेकिन वे कोर्ट कैंटीन में देखे बिलावों जैसे नहीं थे। एक दिन ‘शूटिंग’ से लौटते हुए उसने जाना था कि ‘काले बिलाव’ दरअसल बिलाव नहीं, जंगली कुत्ते हैं जो बहुत खुंखार होते हैं। बड़े-बड़े वनमानुष इन्हें अपनी सुरक्षा के लिए पालतू बनाकर रखते हैं। वह बार-बार सोचता ये बड़ी-बड़ी कोठियों में खूब ठाठ से पलते होंगे। डनलप के गद्दे, एयरकंडीशंड कमरे, लंबी-लम्बी कारें, मीट, मुर्गे, दूध, बिस्कुट…. लेकिन बाद में उसे पता लगा कि वास्तव में ये जंगली नहीं हैं, इन्हें ट्रेंड करके जंगली बनाया गया है और इनका काम बहुत जोखिम भरा होता है। वनमानुषों की जान बचाने के चक्कर में कई बार इन्हें खुद जान से हाथ धोना पड़ता था। कभी-कभी कोई जंगली कुत्ता पागल हो जाता तो वह वनमानुष की ही बोटी-बोटी करके चबा जाता। ऐसे पागल कुत्तों से तो वनमानुष भी डरते होंगे। फिर सोचने लगता कि कुत्ते पागल होते क्यों हैं?
कोर्ट कैंटीन जाते-जाते धीरे-धीरे उसने जाना कि यहां कोर्ट में जितनी फाइलें हैं उससे अधिक चूहे हैं। कुछ अच्छे खासे मोटे-ताजे चूहे और कुछ थोड़ा कमजोर से। कुछ चूहे तो सचमुच मरियल और बीमार नजर आते। कुछ तो तीन-तीन पीढि़यों से यहीं हैं। कुछ चूहे आपस में लड़त रहते और कुछ बेहद थके हुए उदास-उदास से घूमते रहते। मोटे ताजे चूहे हमेशा मस्त नजर आते। कुछ चूहे भारी फाइलों के नीचे दबकर मर जाते और किसी को पता नहीं लगता। ज्यादातर चूहे शायद इसलिए लड़ते थे कि एक चूहे ने दूसरे चूहे के बिल पर कब्जा कर लिया है या उधार लिया अनाज नहीं लौटा रहा है। चूहों और चुहियों के बीच अकसर इसलिए झगड़ा रहता कि चूहा चुहिया को ठीक से खाने के लिए नहीं देता, मारता-पीटता है या चुहिया को बिल से बाहर निकाल दिया है। कभी-कभी एक चुहिया, दूसरी चुहिया से इसलिए लड़ती कि चूहे के बिल व अनाज पर असली हक उसका है और वह ही चूहे की असली घरवाली है।
ऐसे चूहों की सुरक्षा के लिए बहुत सोच समझकर ‘एअर टाइट’ दरवाजे और खिड़कियां बनवाई गई हैं। लेकिन कभी-कभार खिड़की खुली रह जाती तो बिलावों के हाथ कुछ चूहे ही आ जाते। अकसर बिलाव मोटे-ताजे चूहों पर हाथ नहीं डालते लेकिन कभी-कभी मोटा-ताजा चूहा अपने भार, बुढ़ापे और सुस्ती के कारण भाग नहीं पाता इसलिए बिलावों की पकड़ में आ जाता। किसी बिलाव के हाथ जब कोई मोटा-ताजा चूहा लग जाता तो वह बिल्लियों और बलुटनों के साथ मिल-बांटकर खाता और उस समय ऐसा लगता जैसे किसी पांच तारा होटल में कोई शानदार पार्टी हो रही हो।
जब कभी ‘शूटिंग’ पर जाने में देर हो जाती तो वह सुबह के नाश्ते के लिए भी कोर्ट कैंटीन चला जाता। उसने कई बार देखा था कि सुबह एक बड़ी सी नीली गाड़ी कैंटीन के सामने आकर रुकती। गाड़ी के अगले और पिछले दरवाजे से कुछ कुत्ते बाहर निकलते। पता नहीं क्यों मटियाले रंग के सभी कुत्तों के गले में चमड़े का पट्टा पड़ा रहता और हर पट्टे पर अलग-अलग नम्बर। कुछ कुत्ते गाड़ी के आगे और कुछ पीछे खड़े हो जाते। चारों तरफ से चौकन्ना कुत्तों की देख-रेख में गाड़ी के अंदर से एक-एक करके बहुत से छोटे-छोटे पिंजरे निकले जाते। हर पिंजरे में बंद चूहे के पंजों में छल्ले पड़े रहते और हर छल्ले पर अलग-अलग नम्बर। पिंजरों में चूहे अधिक, चुहियां कम दिखाई पड़ती। ध्यान से देखने के बाद मालूम पड़ता कि किसी का सिर फूटा हुआ है तो किसी के पंजे कटे हुए हैं। किसी के पेट पर खून जमा होता है तो किसी की पूंछ गायब होती। चूहों के खाने के लिए पिंजरे में रोटी के टुकड़े पड़े रहते। पिंजरे में छटपटाते चूहों को देखकर उसे लगता जैसे बहुत देर से प्यासे हैं और उसका मन करता कि वह उन्हें थोड़ा पानी पिला दे, मगर कुत्तों के डर से चुपचाप खड़ा-खड़ा देखता रहता। छोटे-छोटे पिंजरे में कोई चूहा इसलिए बंद होता कि उसने किसी चूहे के बिल से अनाज चुराया था तो कोई इसलिए कि उसने किसी और की चुहिया को अपने बिल में छुपा रखा था। कुछ चूहे इसलिए बंद थे कि मोटे-ताजे चूहों के बिल के सामने धरना देकर बैठे थे तो कुछ इसलिए कि वे जानबूझकर आस-पास के चूहों को बिना वजह डराते-धमकाते थे। सभी पिंजरे कुत्तों की निगरानी में सारा दिन अलग-अलग कमरों में रखे रहते और शाम को नीली गाड़ी में भरकर न जाने कहां चले जाते।
एक दिन वह सूरज छिपने के कुछ देर बाद कैंटीन गया था। उसे ठीक तरह से तो याद नहीं था लेकिन उसे लगता था जैसे चाबियों का गुच्छा यहीं कैंटीन में कहीं रखकर भूल गया है। कैंटीन बंद हो चुकी थी लेकिन वह फिर भी इधर-उधर टार्चलाइट में चाबियों का गुच्छा ढूंढने की कोशिश करता रहा। चाबियां तो उसे नहीं मिलीं पर इस बीच अचानक टार्च लाइट में उसने देखा और देखता रहा कि एक मोटा चूहा किसी भारी फाइल को अपने दांतों में फंसाए घसीटता हुआ ले जा रहा है। वह चूहे के पीछे-पीछे भागा लेकिन चूहा फाइल समेत न जाने कहां गायब हो गया।
वह मोटे चूहे के इस कारनामें से बेहद हैरान था और चाबियां न मिलने के कारण परेशान भी। वह सोचता-सोचता पैदल ही चलने लगा। वह कभी चाबियां के बारे में सोचता तो कभी मोटे चूहे के बारे में। रास्ते में उसे ख्याल आया कि वह मोटा चूहा दरअसल चूहा नहीं ‘घूस’ होगी। उसे याद आने लगा कि मां ने उसे एक बार बताया था कि घूस चूहे की तरह ही होती है पर काफी मोटी। घूस दिन में दिखाई नहीं पड़ती। अंधेरा होने के बाद किसी गंदी नाली से निकलकर बाहर आती है। घूस नीचे ही नीचे सारी जमीन और घर की नींव का खोखला कर देती है। छोटे से छोटे रास्ते में से भी मोटी घूस आसानी से निकल जाती है। अलमारी में पीछे से सारी किताबों को कुतर-कुतरकर ढेर लगा देती है और सामने से देखने पर लगता है जैसे सब ठीक-ठाक है।
वह रास्ते भर घूस के बारे में ही सोचता रहा और फिर अचानक उसे लगा कि कहीं उसकी चाबियों का गुच्छा भी घूस तो उठाकर नहीं ले गई। उसे डर लगने लगा कि कहीं घूस उसके कमरे का ताला खोलकर सारा सामान लेकर चम्पत न हो जाए। वह जल्दी-जल्दी चलने लगा। ज्यों-ज्यों वह आगे बढ़ता उसका डर भी बढ़ने लगा। डर के मारे उसकी रफ्तार और तेज हो गई।गली के मोड़ पर पहुँचा तो वहाँ घुप्प अँधेरा था। वह एक क्षण रुका, बीड़ी सुलगाई और कमरे के पास आकर माचिस की तीली की रोशनी में ताला ढूँढने लगा। ताला सही सलामत देखकर उसकी जान मे जान आई। ताले में अटकी पर्चियाँ जेब में ठूंसी और हिम्मत करके उसने एक ईट उठाईं। दो- तीन बार में ही ताला खुलकर उसके हाथ में आ गया। उसे लगा कि वह नाहक ही डर रहा था। ताला तोड़ने की आवाज सुनकर कोई पड़ोसी बाहर निकलकर नहीं आया। पड़ोस की दुनिया सोती रही। उसने दरवाजा बंद किया और अखबार उठाकर तख्त पर आ बैठा। देर गए तक वह ‘बोफार्स’ व ‘फेयरफैक्स’ की ख़बरें पढ़ता रहा और सारी रात उसके दिमाग में ‘घूस’ कुतर-कुतर करती रही।
अगले दिन वह ‘शूटिंग’ पर नहीं गया, सारा दिन कमरे मे पड़ा सोता रहा और उसे सारी रात नींद नहीं आई। वह बार-बार बीड़ी सुलगाता, पानी पीता और अखबार पलटता रहा लेकिन दिमाग में घुसे बिलावों, बिल्लियों, बलुटनों, चूहों, कुत्तों और घूस को भगा नहीं पाया। वह उनके बारे में कुछ भी न सोचने की कोशिश में बार-बार यही सोचता रहा कि शायद हर बिलाव अपने-अपने इलाकों के चूहों को अपना शिकार समझता है इसलिए एक बिलाव भले ही अपने इलाके के किसी चूहे को मारकर खा जाए लेकिन किसी दूसरे बिलाव को खाने नहीं देता। अगर कोई बाहरी बिलाव किसी चूहे को खा जाता या खाने की कोशिश करता है तो बिलावों मे खूब लड़ाई होती है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि कोई बिलाव अकेले किसी चूहे को नहीं मार पाता है, तब वह बाहरी बिलावों की मदद लेता है और बदले में थोड़ा हिस्सा उन्हें भी दे देता है। बिलाव जब लड़ते हुए दिखाई पड़ते हैं तो उसका एक ही कारण होता है। एक चूहे पर किसी बिलाव का एकाधिकार। वरना बिलाव आपस में प्यार से खेलते, खाते, घूमते नजर आते हैं। वैसे एक बिलाव दूसरे बिलाव को होली-दीवाली या नए साल की खुशी में चूहे मारकर उपहार में भी भेजता है।
‘ब्लैक एंड व्हाइट बिलाव सारी दुनिया को सिर्फ ब्लैक एण्ड व्हाइट में ही देखते हैं क्योंकि उनमें बाकी रंग देखने की क्षमता और संवेदनशीलता होती ही नहीं है। उसे लगता है कि मोटे-ताजे बिलावों के पीछे-पीछे पूंछ हिलाते हुए घूमते रहना बिल्लियों और बलुटनों की मजबूरी है। पूंछ नहीं हिलायंगे तो बिलाव चूह मारने के गुर नहीं सिखाएगा और वे भूखे मर जाएगे। सच तो यह भी है कि चूहे मारने की ट्रेनिंग लेते हुए बलुटनें दरअसल खुद एक दिन मोटा-ताजा बिलाव बनने के सपने देखते रहते हैं पर कोई-कोई बलुटना ही बड़ा होकर मोटा-ताजा बिलाव बन पाता है वरना अधिकतर बलुटनें तो सारी उम्र बिलावों के पीछे-पीछे पूंछ हिलाते ही रह जाते हैं। बिलावों के मरने के बाद उसकी जगह उसके अपने बलुटनें ही लेते हैं और अगर किसी बिलाव का अपना कोई बलुटना न हो तो बाकी सारे बिलाव मिल-बांटकर उसके सारे चूहे खा जाते हैं।
चूहों के बारे में सोचते-सोचते उसे मालूम होता कि बिलाव के हाथ चूहे सिर्फ इसलिए लग जाते हैं कि आपस में लड़ते हुए चूहों को बिलाव का पता ही नहीं लगता होगा। चूहे आपस में न लड़ें तो हो सकता है कि बिलाव के हाथ कोई चूहा न लगे। उसे लगता कि शायद चूहे भी इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं, तभी तो कई बार लड़ाई होने पर आपस में ही सुलह-समझौता कर लेते हैं ताकि बिलाव के हाथों मारे जाने से बच जाएं। पर फिर भी यह सोचते-सोचते वह इस नतीजे पर पहुंचता कि जब कोई बिलाव किसी चूहे को मारकर खा जाता है तब उसके परिवार के अन्य चूहे बदला लेने की भावना से बिलाव की सारी किताबें कुतर डालते हैं। चूहे समझते होंगे कि बिलाव सारा दिन किताबों में घुसे रहते हैं इसलिए उन्हें किताबों से बहुत प्यार है या किताबों के ढेर में घुसे रहना उन्हें सबसे अच्छा लगता है। जब चूहे बिलावों की किताबें कुतर जाते होंगे तो बिलाव को गुस्सा आता होगा और वह पहले से अधिक चूहे मारना शुरू कर देता होगा। लेकिन उसकी समझ में यह कभी नहीं आया कि बिलाव चूहे मारकर खा जाते हैं इसलिए चूहे किताबें कुतरते हैं या चूहे किताबें कुतरते हैं इसलिए बिलाव चूहे मारता है।
उसने अभी तक सुना था कि कुत्ते बिलावों की आपस में कभी नहीं बनती लेकिन कोर्ट-कैंटीन के बाहर उसने कुत्तों और बिलावों को आस-पास बैठे, खाते, खेलते व घूमते कई बार देखा था। वह सोचता कि कुत्तों को लोग वफदार और स्वामिभक्त मानते हैं इसलिए घर की रखवाली के लिए पालतू बनाकर रखते हैं। पालतू कुत्तों को लोग प्यार से खाने के लिए डबल रोटी, बिस्कुट, अंडे, मीट… भी देते हैं। कुत्ता अपने मालिक द्वारा देने पर ही कुछ खाता है। चोरी करके खाना उसकी आदत नहीं होती। लेकिन बिलाव को अक्सर घरों में पालतू बनाकर नहीं रखा जाता क्योंकि वह हर वक्त इस ताक में रहता है कि मालिक इधर-उधर हो तो उसे दूध-मलाई चाटने का मौका मिले। बिलाव जब भी दबे पांव दूध पीने के लिए रसोई की ओर बढ़ता है तो कुत्ता भौंकने लगता है। ऐसे में घर वाले सावधान हो जाते हैं और बिलाव के हाथ दूध नहीं लगता। यही कारण है कि कुत्ते और बिलावों की आपस में नहीं बनती।
लेकिन कैंटीन वाले बिलाव लगता है बहुत चालाक हैं। इसलिए कुत्तों को भी बराबर खाने के लिए कुछ न कुछ देते रहते हैं। इसलिए बिलावों को देखकर न कुत्ते भौंकते हैं और न किसी को पता चलता है कि बिलाव दूध मलाई चाट रहे हैं इस बीच पीछे से कोई चूहा पिंजर से भाग भी निकलता है तो कुत्ते थोड़ी देर भौंकभांक कर चुप हो जाते हैं।बिलावों, बिल्लियों, बलुटनों, चूहों और कुत्तों के बीच इन सारी ‘एडजस्टमैंट्स’ और ‘कन्ट्राडिक्शन्स’ को वह बार-बार नए दृष्टिकोण से समझने की कोशिश करता रहता। उसे लगता कि बिलावों, बिल्लियों और बलुटनों के बिना कुत्ते उदास नजर आते हैं और कुत्तों के बिना बिलाव, बिल्लियां ओर बलुटनें असुरक्षित महसूस करते हैं। बिलाव, बिल्लियां और बलुटने चूहों की तलाश में सारा दिन लगे रहते हैं। कोई चूहा मिल जाता है तो खुश दिखाई पड़ते हैं, नहीं मिलता है तो ऐसे लगता है जैसे बिना शिकार के कोई शिकारी वापस लौट आया हो। कुत्तों को जिस दिन कैंटीन में कोई मुर्गा हाथ लग जाता है तो शाम तक मूछों पर जीभ फेरते रहते हैं। कुत्तों और बिलावों में कभी-कभार झगड़ा होता नजर आता है लेकिन थोड़ी ही देर बाद सब फिर पहले जैसे खेलते, खाते, घूमते दिखाई पड़ते हैं।उसे लगता कि चूहों की आपसी लड़ाई और अकेले होने की कमजोरी का फायदा कुत्ते और बिलाव दोनों उठाते हैं। बिलावों और कुत्तों में वास्तव में कोई बैर नहीं है बशर्ते कि मिल-बांटकर खाने को बराबर मिलता रहे। सारी लड़ाई किसी एक द्वारा अकेले सब कुछ हड़प् कर जाने की है।
कुछ दिन बाद, जब भी उसे घूस का ध्यान आता तो वह यह सोचकर डरने लता कि घूस ने नीचे ही नीचे सारी जमीन खोखली कर दी होगी। जमीन पर पांव रखते हुए उसे भय रहता कि कहीं वह धंस न जाए। सड़क पर जाते हुए वाहन जब दूर जाकर दिखना बंद हो जाते तो उसे लगता जैसे धरती में समा गए होंगे। कमरे में सोते हुए उसे लगता जैसे रात को दीवार के नीचे दब जाएगा। बार-बार किताबें निकालकर देखता कि कहीं घूस कुतर तो नहीं गई। वह बार-बार सोचता कि धरती के नीचे बिल बना रही घूसों की कुतर-कुतर की आवाज लगातार बढ़ती जा रही है। कमरे में घुसता तो डर लगता, बाहर घूमता तो बेचैनी होती कि किसी तरह अपने कमरे पर पहुंच जाए। कुछ दिन बाद तो घूस के भय से वह इतना आतंकित हो गया कि शूटिंग पर जाने से भी डरने लगा। किसी से कहता कि घूस ने नीचे ही नीचे सारी जमीन खोखली कर दी है तो लोग हंसते और कहते, ‘‘लगता है पागल हो गए हो।’’
उस दिन वह कोर्ट-कैंटीन कई दिन बाद पहुंचा था। कैंटीन में घुसते ही उसने चारों ओर नजर घुमाकर देखा लेकिन एक भी बिलाब, बिल्ली या बलुटना नजर नहीं आया। अजीब सन्नाटा था। उसकी समझ में ही नहीं आया कि आखिर वे सब कहां चले गए। वह तेजी से कदम बढ़ाता हुआ अंदर पहुंचा तो हाल में मुश्किल से दो-चार लोग ही बैठे थे। वहां भी उसे कोई बिलाव, बिल्ली या बलुटना नजर नहीं आया। वेटर आया तो उसन आर्डर देने से पहले उससे पूछा, ‘‘भाई, यहां जो बिलाव, बिल्लियां और बलुटनें घूमते रहते थे…?’’
वेटर ने सुना तो हंसने लगा और मजाक के लहजे में बोला, ‘इंडिया गेट घूमने गये होंगे।’’
वह वेटर के मुंह की तरफ देखता रहा। वेटर ने चुप्पी तोड़ी और बोला, ‘‘क्या लाऊं साहब।’’
उसने चाय पी और बाहर निकलने ही वाला था कि तभी उसके पास वह टाइपिस्ट आ खड़ा हुआ जो उसे अक्सर वहां आता देखकर पहचानने लगा था।
टाइपिस्ट ने नमस्ते की और पूछा, ‘‘क्यों जनाब कैसे हो?’’
उसने कहा, ‘‘अच्छा हूँ… पर वो बिलाव, बिल्लियां और….?
टाइपिस्ट ने बताया, ‘‘अरे भाई जान, क्या पूछते हो। कुछ दिन हुए पता नहीं कहां से एक ‘‘जंगली कुतिया’’ यहां घुस आई और टॉयलट के बाहर सोये एक बलुटने को मुंह में दबाकर भाग गयी। तब से यहां कोई बिलाव, बिल्ली या बलुटना दिखाई नहीं पड़ रहा। कहते हैं, सब जंगल में उस जंगली कुतिया को ढूंढ रहे हैं।’’
वह वहां से फिर ‘‘शूटिंग’’ पर चला गया और रात को देर गए कमरे पर पहुंचा। रास्ते भर उसे लगता रहा कि घूस उसका पीछा कर रही है। लेटे-लेटे वह न जाने क्यों बार-बार बिलावों, बिल्लियों, बलुटनों, कुत्तों, चूहों और घूस के बारे में सोचता रहा। उसने देखा कि वह कोर्ट कैंटीन में बैठा चाय पी रहा था कि तभी एक बहुत जोर का धमाका हुआ जैसे कोई बम फटा हो। सब कुछ के साथ वह भी धीरे-धीरे नीचे धंसने लगा और उसके ऊपर किताबें, फाइलें और मलबा गिरने लगा। थोड़ी देर बाद उसके चारों ओर पानी ही पानी और पानी में तैरती किताबें फाइलें और मरे हुए चूहे नजर आने लगे। काफी हाथ-पैर मारने के बाद वह ठीक से खड़ा हो पाया तो उसे लगा जैसे वह किसी लंबी अंधेरी गुफा में फंस गया है। वह धीरे-धीरे सुरंग में चलने लगा। काफी दूर पहुँच कर उसे ध्यान आया कि उसके पास टार्च है। टार्च जलने की बहुत कोशिश करता रहा पर टार्च जली ही नहीं। वह धीरे-धीरे अंधेरे में ही चलता रहा। घंटों सुरंग में चलते-चलते वह हांफने लगा और उसे बाहर निकलने का कोई रास्ता नजर नहीं आया। वह एक पल सोचता कि इस सुरंग से निकलना मुश्किल है पर दूसरे ही क्षण उसे लगता कि आखिर कहीं न कहीं तो खत्म होगी ही। वह चलता रहा… चलता रहा… और जब हल्की-सी रोशनी दिखाई देने लगी तो उसकी सांस में सांस आई। कुछ कदम और चलते ही उसके सामने जानी-पहचानी संसद कैंटीन थी और कैंटीन में लंगूर ही लंगूर। वह बिना कुछ और देखे सीढि़यां चढ़ने लगा। जब बाहर निकला तो उसने देखा कि वहां गुम्बद पर गड़े लोहे के पोल पर झंडा लहरा रहा है, चारों ओर बनी इमारतें धरती में धंस गई है और आकाश में चीलें मंडरा रही हैं।
जब आंख खुली तो उसे लगा जैसे दमघोंटू विषैली गैस में घिर गया है और मरे हुए चूहों की गंध उसकी नस-नस में भरती जा रही है। वह जल्दी से उठा, जूते पैरों में फंसाये और झोला उठाकर कमरे से बाहर निकल आया। रास्ते में चाय की दुकान पर अखबार उठाकर देखा तो पहले पेज पर दो फोटो छपे थे। पहले में बहुत से बिलाव, बिल्लियां और बलुटनों एक झाड़ी को चारों ओर से घेरे खड़े हैं मगर झाड़ी में जंगली कुतिया का नामोनिशान तक नहीं है। दूसरे में-एक बड़ी सी कोठी के बाहर लॉन में कुर्सी पर बैठा वनमानुष पांव चाटती घूस की पीठ पर हाथ फेर रहा है, सामने गुर्राने की मुद्रा में जंगली कुतिया खड़ी है और चारों तरफ पहरा देते काले बिलाव घूम रहे है।
फोटो के नीचे उसका अपना नाम छपा था।
वह जब चाय पीकर उठा तो उसे ध्यान आया कि सूरज निकलने में अभी समय है और उसे ‘शूटिंग’ पर जाना है।
समाप्त
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