स्त्रीवाद के भीतर दलित स्त्रीवाद

साभार: विस्फोट.कॉम

‘दलित स्त्रीवाद का सभी मुक्तिकामी आन्दोलनों की उपलब्धियों पर दावा है, सबके साथ अलायंस है ,सबकी सीमाओं को अहसास कराते हुए.’ यह निष्कर्ष पिछले २४ सितम्बर को दलित स्त्रीवाद: चुनौतियां और लक्ष्य विषय पर हुए परिचर्चा का था, जिसे स्त्रीकाल (स्त्री का समय और सच) पत्रिका के दलित स्त्रीवाद अंक के प्रकाशन के अवसर पर स्त्रीकाल और आल इण्डिया बैकवर्ड स्टूडेंट्स फोरम के द्वारा आयोजित किया गया था.

स्त्रीकाल की ओर से बोलते हुए संपादक मंडल के सदस्य धर्मवीर सिंह ने कहा कि स्त्रीकाल अपने प्रकाशन के साथ ही विशेष अंकों का प्रकाशन करता रहा है और सम्बंधित थीम पर परिचर्चा आयोजित करता रहा है , इस बार का अंक चुकी ‘दलित स्त्रीवाद अंक है,’ इसलिए यह परिचर्चा आयोजित हुई है. विषय प्रवेश करते हुए पत्रिका की अतिथि संपादक अनिता भारती ने कहा कि दलित स्त्रीवाद को सवर्ण वर्चस्व के स्त्रीवाद से अलग ढंग से समझने की जरूरत है . यदि दलित स्त्री की मुक्ति की बात करनी है , तो उसे सबसे पहले जाति से मुक्ति की बात करनी होगी , देह –मुक्ति का सवाल दलित स्त्रीवाद का सवाल नहीं है. दलित स्त्री के श्रम भी गैर दलित स्त्री की तुलना में अलग है ,जहाँ उत्पीडन की संभावनाएं अधिक है .’

टाटा इंस्टिट्यूट फॉर सोशल सायंस के एडवांस सेंटर फॉर वीमेनस स्टडीज की चेयर पर्सन मीना गोपाल ने कहा कि ‘जब श्रम और यौनिकता के सवाल को जाति के सवाल के साथ जोड़ कर देखते हैं, तो स्त्रीवादी राजनीति का एक अलग परिप्रेक्ष्य सामने आता है . इसलिए स्त्री आन्दोलन पर बात करते हुए दलित स्त्री आन्दोलन की स्वायतता को अलग से समझा जाना जरूरी है.’

सी डव्ल्यु डी एस की सीनियर फेलो मेरी इ जॉन ने कहा कि पिछले चार –पांच दशकों में स्त्रियों ने अपनी पहचान बनानी शुरू की है, उसी अनुपात में उनके ऊपर पुरुष हिंसा की घटनाएं बढती भी गई हैं. चाहे वह हिंसा हरियाणा के खाप पंचायतों के द्वारा हो या दिल्ली आदि जगहों में बलात्कार के रूप में हो.’

नाट्यकर्मी तथा सामजिक कार्यकर्ता सुजाता पारमिता ने इस विषय पर आपनी बातचीत में कहा कि दलित स्त्री साहित्य दलित स्त्री के जमीन पर किये गए संघर्ष से पैदा हुआ साहित्य है, इसलिए उसको देखने और समझने के लिए अलग ढंग के नजरिये की जरूरत है. उन्होंने लोककलाओं और साहित्य में दलित स्त्री के दखल पर विस्तृत प्रकाश डाला. वही जे एन यू के भारतीय भाषा केंद्र के प्राध्यापक देवेन्द्र चौबे ने कहा कि दलित स्त्रीवाद के प्रसंग में सबसे बड़ा सवाल है कि हमारे सामजिक –सांस्कृतिक संरचना में दलित स्त्री को कहाँ जगह दी गई है .’

मिरांडा हाउस, दिल्ली विश्वविद्यालय की प्राध्यापिका रजनी दिसोदिया ने विषय पर बहस के बाद अपनी टिपण्णी में विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में दलित स्त्री और दलित प्रश्नों के साथ भेद –भाव को स्पष्ट किया , वहीँ उन्होंने समाज में गहरे पैठ चुके जातिवादी मानस के कारण दलित स्त्री के प्रति समाज के हिंसक रवैये पर भी अपनी बात कही. अपनी टिपण्णी में दलित प्रश्नों पर आधिकारिक हस्तक्षेप रखने वाले डा बजरंग बिहारी तिवारी ने कहा कि ‘दलित स्त्रीवाद डा आम्बेडकर की पुनर्प्राप्ति का आन्दोलन है. उन्होंने कहा कि दलित स्त्रीवादी लेखन आन्दोलन धर्मी लेखन है, इसकी लेखिकाएं आन्दोलनों से जुड़कर लिखती हैं न कि खाली समयों में अभिव्यक्त होती हैं.’

स्त्रीवादी चिन्तक और कार्यकर्ता रमणिका गुप्ता ने कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए कहा कि ‘दलित स्त्रीवादी आन्दोलन से स्त्रीवादी आन्दोलन और मजबूत होगा. उन्होंने दलित स्त्री के तिहरे शोषण की बात करते हुए कहा कि उनका संघर्ष जाति और पितृसत्ता दोनो से है.’ रमणिका गुप्ता ने कहा कि ‘आदिवासी तथाकथित सभ्य समाज से ज्यादा प्रगतिमूलक समाज है. उनकी भाषा और भाषिक मिथक की प्रकृति स्त्रीवादी है . उनकी कई जनजातियों में स्त्री की संतान के लिए उसकी माता की पहचान ही काफी है , इस लिहाज से स्त्रियाँ वहां ज्यादा स्वतंत्र हैं. दिक्कत तब होती है , जब उनके बीच से ही कोई कालेज –विश्वविद्यालयों में पढ़कर सीता –सावित्री के मिथकों से परिचित हो जाता  है .’ उन्होंने इस सदी को प्रतिरोध की सदी कहा और हर स्तर पर चल रहे स्त्रियों के संघर्ष के आपसी साहचर्य को आवश्यक बताया.’ कार्यक्रम का संचालन स्त्रीकाल के संपादन मंडल के सदस्य धर्मवीर सिंह  ने किया और धन्यवाद ज्ञापन ए आई बी एस ऍफ़ के जितेन्द्र यादव ने किया .

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